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________________ २० : धर्म सूलार्थ - द्रव्य प्राप्ति में अन्तराय करनेवाले ( लाभान्तराय) का नाश न्याय से ही होता है । विवेचन- ततः--न्यायसे-न्यायानुसार कार्य करनेसे, नियमतः - नियमानुसार निश्चितरूपसे, प्रतिबन्धककर्मणः- रोकनेवाले लाभाराय कर्मका - भवान्तरमे अपने लाभके लिये दूसरेके लाभको हानि करनेसे उत्पन्न तथा अपने लाभमे विघ्न करने वाले - लाभान्तराय कर्मका, विगसः- नाश होता है । संपत्तिको उपार्जन करनेका एक मात्र उपाय न्याय ही है क्योंकि न्याय से लाभान्तराय कर्मका जो अर्थ प्राप्तिमें बाघा करते हैं, नाश होता है, तब द्रव्यकी प्राप्ति होती है । 'जैसे ठीक तरहसे लंघन आदि क्रियासे ज्वर, अतिसार आदि रोग नष्ट होते है वैसे " ही न्यायसे कर्म नष्ट होकर द्रव्य प्राप्त होता है । वह लाभान्तराय कर्मका नाश होने से क्या सिद्ध हुआ ' कहते है 7" सत्यस्मिन्नायत्यामर्थसिद्धिरिति ॥१०॥ - मूलार्थ - उस लाभान्तराय कर्मका नाश होने से भविष्य में धन प्राप्ति होती है । "विवेचन - सति अस्मिन् खाभान्तराय कर्मका नाश होने पर, न रहने पर, आयत्याम् - आनेवाले समय में - उसके बाद, अर्थ - सिद्धि - इच्छित वैभवकी प्राप्ति या सिद्धि होती है । JN #t विघ्नका नाश होने पर वस्तु मिलती है अत घनके लिये ,
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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