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________________ गृहस्य सामान्य धर्म : २१ अंतराय रूप लाभान्तराय कर्म नष्ट हो जाने पर न्याययुक्त कार्यसे 'नष्ट होते हैं, धन स्वत' प्राप्त होता है । अन्यथा जो दोष होता है, वह कहते हैं - अतोऽन्यथापि प्रवृत्तौ पाक्षिकोऽर्थलाभो निःसंशयस्त्वनर्थ इति ॥११॥ मूलार्थ-उससे भिन्न प्रकारसे (अन्यायसे) व्यवहार करनेसे लाभ कभी कभी होता है, अनर्थ तो जरूर होता है । विवेचन - अतः - न्याय से, अन्यथापि - भिन्न प्रकारसे - अन्यायसे, प्रवृत्तौ व्यवहार करनेसे, प्रवृत्ति या काम करनेसे, पाक्षिकःवैकल्पिक-कभी कभी, अर्थलाभः - धननाप्ति, निस्संशय:- निःसंदेह होती है । न्यायसे उचित आचरण करना चाहिए । न्यायसे न होकर अन्यायद्वारा व्यवहार करनेसे धनकी प्राप्ति तो कभी कभी होती है, कभी नहीं भी होती पर अनर्थ व पापाचरण तो अवस्य ही हो जाता है । यदि पिछला पुण्य तेज हो तो अन्यायद्वारा भी धन मिल जायगा पर उससे आनन्द न होगा | पुण्यकृत्यका नाश होगा व पापकर्मका बन्धन होगा | 15 $ पहले तो अन्याय में प्रवृत्ति करना ही अगस्य है, क्योंकि राजडण्ड आदिका भय रहता है । कहा है कि "राजदण्डभयात् पापं, नाचरत्यधमो जनः । . परलोकभयान्मध्यः, स्वभावादेव चोत्तमः" ॥७॥ -
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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