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________________ १८ : धर्मविन्दु है। बुरे कर्मसे उपार्जन होनेवाले कर्मका फल बुरा मिलेगा ही। अतः धनप्राप्तिमें अन्याय नहीं करना । द्रव्य यदि स्थिर भी रहे तब भी विषयलालसामें प्रवृत्त होनेके कारण बुरा परिणाम लानेवाला बनता है। कहा है कि "पापेनैवार्थरागान्धः, फलमाप्नोति यत् कचित् । घडिशामिषवत् तत् तमविनाश्य न जीर्यति ॥४॥ -यदि कभी द्रव्य के प्रेममें अधा हुआ व्यक्ति कभी अन्यायरूप पापसे द्रव्य फलकी प्राप्ति करता है तो भी अंततः जैसे कांटेमें लगी मांसकी गोली मठलीका नाश करती है वैसे ही वह द्रव्य उसका नाश किये बिना नहीं पचता ॥४॥ यदि अन्यायसे पैदा करनेका मन करनेसे धनकी प्राप्ति ही न हो, उससे आजीविकाका नाश हो, तो धर्म करनेके लिये आवश्यक चित्तकी शांति कैसे रहेगी। उत्तर देते हैंन्याय एव ह्यप्त्युपनिषत्परेति समयविद इति ॥८॥ मूलार्थ-न्याय ही धन पैदा करनेका अत्यन्त रहस्यभूत उपाय है ऐसा सिद्धान्तवेत्ता कहते हैं। . . विवेचन-न्याय एव-न्याय ही, 'अन्याय नहीं, उपनिषतअत्यन्त रहस्यभूत उपाय, जो उपाय योग्य और अयोग्य (युक्त, अयुक्त) अर्थसमूह वे कार्योंमें भेद करनेकी कुशलता रहित स्थूल बुद्धिवाले पुरुषोद्वारा स्वप्नमें भी न जाना जा सके। परा-उत्कृष्ट, समयविदा-सदाचारके ज्ञाता पंडित जन। । ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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