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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : १७ विवेचन-न्यायसे उपार्जित न होकर अन्यायसे उपार्जित द्रव्य हो वह दोनो लोकोके लिये अहित करनेवाला है। वह अहितका निमित्त होता है। 'काकतालीय' (कौआ बैठा, डाली तूटी) न्यायसे भी उस द्रव्यसे हित नहीं होता। उससे इस लोकमे तथा परलोकमें भी अमंगल ही होता है। वह अहितका कारण कैसे होता है ?, कहते हैं- तदनपायित्वेऽपि मत्स्यादि गलादिवद् विपाकदारुणत्वादिति ॥७॥ मूलार्थ-यदि वह अन्यायझे' उपार्जित द्रव्य नष्ट न हो तब भी मत्स्य आदिको गलगोरिकी तरह परिणाममें दारुण विनाशकारी होता है। विवेचन-अन्यायसे पैदा किया हुआ धन पहिले तो शीघ्र ही नष्ट होता है, जैसे शल्ययुक्त गृह । शिल्पशास्त्रके अनुसार शल्यवाला घर शीघ्र नष्ट होता है। यदि कभी बलवान पापानुबन्धी पुण्य होनेसे वह जीवनभर बना भी रहा और नाश न हुआ तो भी उसका परिणाम बुरा है । वह लोभ और लालसासे इकट्ठा किया हुआ होता है और लालसा दुःख लाती है, जैसे लोहेके काटेमें मासका टुकडा (गलगोरि) लगा हुआ होता है, उससे रसनाके स्वादमें मत्स्य मारा जाता है, मृगकी गान सुननेकी कर्णेन्द्रियकी लालसासे मृत्यु होती है और पतंग भी चक्षुरिन्द्रियके कारण दीपककी ओर बढकर प्राण खोता है, उसी प्रकार भन्यायका धन कमानेवालेको दुःख लाता
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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