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________________ ४३४ : धर्मबिन्दु भव्य जनोंके लिये हर्षका कारण होता है। ध्यानके सुखकी प्राप्ति होती है और अतिशय ऋद्धिकी प्राप्ति होती है ॥४॥ विशुद्ध्यमानस्य-हीनता व क्लेशसे रहित तथा भिन्न अतः केवल शुद्ध, अप्रतिपातिनः-जिसका कभी भी नाश न हो, चरणावाप्ति-चारित्रकी प्राप्ति, तत्सात्म्यभावा-ऐसे चारित्रके कारण ही उसके साथ आत्माकी एकता हो जाती है और ऐसा,सुंदरभाव उत्पन्न होता है, चारित्रके साथ आत्मा मिलकर एकरस हो जाता है; (भावपरिणति ,, भव्य प्रमोदहेतुता-भव्य जनोंको संतोष व हर्ष पैदा करनेवाला, ध्यानसुखयोग:-ध्यान सुखका, अन्य सब सुखोसे अतिशय ज्यादा सुखवाला, चित्तका निरोध करनेवाला योग, अतिशर्द्धिप्राप्तिरिति--अतिशय ऋद्धि, जैसे--आमर्षऔषधि आदि लब्धिओकी प्राप्ति होना, (उपर्युक्त सूत्रकी ७ बातोंमें ये ५ मिलानेसे १२ हुई) : .. , इस चरम देहमे ( अंतिम भवमें ) अतिचार रहित, भावन्यूनता विना यथाख्यात चारित्रका पालन करता है। वह चारित्रसे कभी नहीं डिगता। चारित्रके साथ उसकी एकता हो जाती है। उसके उच्च विचार कार्यरूपमे आते हैं। . उसके (धर्मिष्ठ जीवके अतिम भवमें-चरम देहवालेके) आचार विचारसे मुमुक्षु क भव्य जीवोंको बहुत लाभ होता है तथा आनंद व संतोष भी। साथ ही ध्यानसे उत्पन्न होनेवाला अचिन्त्य सुख मिलता है। चित्तवृत्ति स्थिर होती है। चित्तके निरोधसे आत्मज्योति
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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