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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि . ४३५ बढकर ज्ञानकी वृद्धि होती है। यह ध्यानयोगका उत्तम सुख अवर्णनीय है । उस भवमें योग वलसे, आत्मबलसे उसे कई लधिओंकी प्राप्ति होती है। . . . . . . अपूर्वकरणं, क्षपकश्रेणिः, मोहसागरोत्तारः, - केवलाभिव्यक्तिः, परमसुखलाभ इति १५॥ (४८६) - मृलार्थ-उपरोक्त गुणों की प्राप्तिके वाद समय आने पर अपूर्वकरण (आठवां गुणस्थान ) पाता है। क्षपकश्रेणि चढता है, मोहरूपी सागरको तैरता है, केवलज्ञानी होता है और मोक्ष प्राप्त करता है ॥५॥ . . . __- विवेचन-अपूर्वकरणं- मोक्ष प्राप्ति के लिये आत्मा धीरे धीरे चढता है। उसके लिये कुल चौदह गुणस्थानक कहे गये हैं। एक पर्वत शिखर जिसके ऊपर मोक्ष है. तथा नीचे मिथ्यात्व हैं, उस पर चढनेके लिये चौदह विश्राम स्थान हैं। वे चौदह गुणके स्थानक हैं इसमे आठवां अपूर्वकरण कहलाता है। पहले किसी गुणस्थानकमें प्राप्त न होनेवाली पांच वाते यहां मिलती हैं-स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम- तथा अपूर्व स्थितिबंध-इस गुणस्थानक परे आनेसे साधु कर्मोंका क्षय जल्दी जल्दी करने लगता है। इस क्रमश: क्षयको क्षपकश्रेणि कहते हैं। आपकश्रेणि- घातीकर्म व प्रकृतिको क्षय करनेवाला यत्न क्षपककी श्रेणि याने मोहनीय आदि कर्मोको क्षय करनेकी क्रमशः प्रवृत्ति होना । क्षपक श्रेणिका क्रम इस प्रकार है
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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