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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३३ धर्मप्रधानता - धर्म ही सार है, अवन्ध्यक्रिया - बहुत निपुण विवेकद्वारा प्राप्त सब वस्तुओका यथार्थ तत्त्व जाननेसे क्रियाकी धर्म आदिके आराघनरूप क्रियाका हमेशा सफल होना, निष्फल न जाना । 1 उपरोक्त सात बातें चरम जन्ममें प्राणीको मिलती हैं । इस स्थान पर चरम देहवाले, जिसे उस भवमें 'केवल' व मुक्तिकी प्राप्ति होती है, उसको मिलनेवाली वस्तुएं तथा उसकी आंतरिक व बाह्य स्थितिका वर्णन किया है । क्लेशरहित विषयसुखकी प्राप्ति होती है । वह प्रत्येक प्रकारसे अच्छा, पूर्ण व हीनतारहित होता है अर्थात् जाति, कुल, वैभव, अवस्था आदि सब उत्तम होते है । वह तन, मन व धनसे सबका उपकार करता है। उसका स्वभाव परोपकारमॅय हो जाता है । उसमें स्व-परका भेद नहीं होता । 'उदारचरितानां Ì ंतु वसुधैव कुटुम्बकम्' । ममत्व-भावनारहित प्रेममय स्वभाव निर्मल चित्तवाला होता । धर्मभावना ही उसमें मुख्य होती है तथा उसकी सब क्रियायें सफल होती हैं । चरमदेही ये प्राप्त करता है । तथा - विशुद्धयमांनाप्रतिपातिचरणावाप्तिः, तत्सात्म्यभावः, भव्यप्रमोदहेतुता, ध्यानसुखयोंगः, अतिशयद्विप्राप्ति- रिति ||४|| (४८५) मूलार्थ- शुद्ध तथा नाशे न होनेवाले चारित्रकी प्राप्ति होती है | चारित्रके साथ आत्माकी एकता होती है। वह ૨૮
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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