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________________ ४३० : धर्म विन्दु वस्तु स्थान या पद नहीं जिसमें इससे अधिक स्व-परका हित साधन हो सके । तीर्थकरका अर्थ ही जगदुद्धारक होता है। संसार समुद्र तैरना ही तीर्थ हैं, तीर्थको करे वही तीर्थकर । तीर्थकर नामकर्म ही 1 विश्वका उपकार करनेवाला है, जैसे- विश्वोपकार की भूततीकृनामनिर्मितिः । पञ्चरपि महाकल्याणेपु त्रैलोक्यशङ्करम् । तथैव स्वार्थसंसिद्धया, परं निर्वाणकारणम् ||४५ ।। मूलार्थ - तीर्थंकरपद पांचों महाकल्याणकोंके अवसर पर तीनों लोकोंका कल्याण करनेवाला है और स्वार्थसाधनमें मोक्ष प्राप्ति ही उत्कृष्ट कारण है ॥४५॥ विवेचन - पश्ञ्चस्वपि - पांचो समयो पर, महाकल्याणेषु - तीर्थकरके महाकल्याणक के अवसर पर, जैसे- गर्भाधान ( या यवन) जन्म, दीक्षा आदि। केवलज्ञान प्राप्ति व निर्वाण चौथे व पांचवें कल्याणक हैं। त्रैलोक्यशङ्करम् - तीनों लोकोंको सुख करनेवाले, तथैव - तीनों लोकोको सुख देने पूर्वक, स्वार्थसंसिद्ध्या - क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रकी सिद्धिसे, परं- मुख्य, निर्वाणकारणंमुक्तिका हेतु है। प्रत्येक तीर्थकरके पांच कल्याणक ( उपरोक) होते है। इन यांचों कल्याणकोंके समय तीनों लोकोंमें सब जगत् के जीव मात्रको आनंद होता है । अतः यह परोपकार करनेवाला तीर्थंकरपद है । और क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र के लाभसे मोक्षकी प्राप्ति होती है जो स्वयं या आत्माका उत्कृष्ट अर्थसाधन है। इस प्रकार तीर्थंकर स्वार्थ व परार्थ साधक है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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