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________________ धर्मफल विशेष देशना विधिः ४२९ - वे परहितको ही उत्कृष्ट धर्म समझते हैं। अपने स्वार्थको गौण (या हलका ) स्थान देते हैं। उचित क्रियामें प्रवृत्ति करते हैं। सर्वदा मदीन भाव बताते हैं। उनका प्रत्येक कार्यका प्रारंभ सफ लतापूर्वक ही होता है या प्रत्येक आरंभ किये हुए कार्यमें सफलता ही मिलती है। पश्चात्ताप नहीं करते या पश्चात्ताप करनेका कोई अवसर ही नहीं आता। कृतज्ञताके स्वामी, विक्षोभ रहित चित्तवाले, देवगुरुका बहुमान करनेवाले तथा गंभीर आशयवाले होते हैं ये सामान्य गुण हैं। यदि तीर्थंकरपद धर्मसे प्राप्त होता है तो वह धर्मका उत्कृष्ट फल है-ऐसा कैसे कहा ? कहते हैं-- नातः परं जगत्यस्मिन्, विद्यते स्थानमुत्तमम् । तीर्थकृत्त्वं यथा सम्यक्, स्व-परार्थप्रसाधकम् ॥४४॥ मूलार्थ-स्व और परके कल्याणको करनेवाला जितना उत्तम यह तीर्थकर पद है वैसा उत्तम स्थान इस जगतमें दसरा एक भी नहीं है ॥४४॥ विवेचन-न अत:- तीर्थंकर पदसे- नहीं, परम्-कोई दूसरा, नगत्यस्मिन्-इस चराचर स्वभावके जगत्में मिलना, विद्यते-होना, स्थान- पद, उत्तम- उत्कृष्ट, सम्यक्-ठीक प्रकारसे, स्वपरार्थसाधकं- अपने तथा दूसरेके हितको करनेवाला। तीर्थकर पद ही ऐसा है जिसमें अपना तथा दूसरेका हित उत्तमोत्तम रूपसे साधा जा सकता है। इस सारे जगत्में अन्य कोई
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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