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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४३१ इत्युक्तप्रायं धर्मफलम्, हदानीं तच्छेषमेव उदग्रमनुवर्णयिष्याम इति ॥ १ ॥ (४८२ ) मूलार्थ - इस प्रकार प्रायः धर्मफल कहा है अब बाकी रहा हुआ ( धर्मफल ) उत्कृष्ट फलका वर्णन करते हैं ॥१॥ विवेचन - धर्मका फल पिछले अध्याय में वर्णन किया है । उसका जो बचा हुआ है और जो धर्मका उत्कृष्ट फल है उसका अव शात्रकार वर्णन करते हैं तच सुखपरम्परया प्रकृष्टभावशुद्धेः सामान्यं चरमजन्म तथा तीर्थकृत्वं चेति ॥२॥ (४८३) मूलार्थ - सुखकी परंपरा से उत्कृष्ट भावकी शुद्धि होनेसे सामान्यतः आखिरी जन्म और तीर्थकरपद ये धर्मके उत्कृष्ट फल हैं ||२|| विवेचन - परम्परया- उत्कृष्ट भावशुद्धि होने तक उत्तरोत्तर क्रमश चढते हुए मुखसे, सामान्यं - जो तीर्थंकर और दूसरे मोक्षगामी जीवोंके लिये जो तीर्थंकर नहीं है- समान है, चरमजन्मअतिम बारका जन्म, जिसके बाद देहधारण करना न पडे, तीर्थकृत्त्वं तीर्थंकर । ; धर्मका सामान्य फल पूर्व वर्णित देव तथा मनुष्योके सुख हैं। उत्कृष्ट फल तो उत्तरोत्तर सुखवृद्धि तथा भावकी क्रमश उत्तमता प्रगट होना है इससे अंतत उत्कृष्ट फल चरम देह है जिससे सीधे मुक्तिमें जाते है तथा दुबारा जन्म-मरणके कष्टसे तथा देह धारण
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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