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________________ ३८६ : धर्मदिन्तु तदा तदसत्यादिति ॥५॥ (१२५) मूलार्थ -उस समय वह (उत्सुकता) असद है ॥५ ॥ विवेचन-प्रवृत्ति काल के समय उत्सुकता आवश्यक नहीं है। पुरुप कार्यमे प्रवृत्ति करते समय उसुकताका आश्रय नहीं लेते । वे पुरुष अच्छे उपायद्वारा ही प्रवृत्ति करते हैं। सदुपाय कार्यको अवश्य सिद्ध करता है। कार्यमें भी उपाय या साधनका असर अवश्य प्रगट हो जाता है। जैसे घडेको बनाने का साधन मिट्टी है। वह कार्यकी प्रवृत्तिके समय अवश्य स्थित होती है अतः किसी भी कार्यकी प्रवृत्तिके समय उसके लिये साधनरूप कारण अवश्य प्रगट हो जाता है । बुद्धिमान जन कार्य में प्रवृत्ति, करनेके समय उसुकता नहीं दीखाते । अतः: उत्सुकता कैसे साधनभाव, हो सकता है ? उत्सुकत्ता प्रवृत्ति कालमें कार्यका साधन नहीं है । सदुपाय ही साधन है। उत्सुकता कार्यसाधनमें विघ्नरूप भी है। सदुपायसे उचित प्रवृत्ति करना ही कार्यसिद्धिका लक्षण है । कहा भी है कि "अत्वरापूर्वकं सर्व, गमनं कृत्यमेव वा। प्रणिधानसमायुक्तमपायपरिहारतः" ॥२०५॥ -सब प्रकारके कार्य अथवा 'गमन (जाना) त्वरारहित (शीघ्रता या उत्सुकता छोड कर ) करना चाहिये क्योंकि कष्ट त्याग करके चित्तकी एकाग्रतासे किया हुआ कार्य सिद्ध होता है अतः उत्सुकता त्याग करके अपने- उचित कार्यमें प्रवृत्ति करना । यदि उत्सुकता प्रवृत्तिकालका साधन नहीं है तो दूसरा कारण क्या है ? कहते हैं
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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