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________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३८७ प्रभूतान्येव तु प्रवृत्तिकाल साधनानीति ||१९|| (४२६) मूलार्थ प्रवृत्तिकालके बतानेवाले साधन (कारण) बहुत है ॥५९॥ विवेचन- किसी कार्यके प्रारंभ करनेका योग्य समय हो' जानेकी सूचना देनेवाले, ऐसे समयको बतानेवाले एक दो नहीं, कई एक कारण हैं । वे बताते हैं निदानश्रवणादेरपि केपाञ्चत् प्रवृत्तिमात्रदर्शनादिति ||६|| (४२७) - निदान, श्रवण आदि से भी कईयों की प्रवृत्ति होती दिखती है ॥ ६० ॥ 2 विवेचन - यहा निदान शब्द कारण मात्र के लिये आया है । जैसे इस रोगका निदान, उत्पत्तिका कारण क्या है ? इस प्रयोगमेंकहा है, जैसे संसारिक - व-स्वर्गीय सुख व भोगोंका कारण दान है ऐसा शास्त्रों में कहा है अत. प्रवृत्ति कालका एक साधन नहीं है । जैसे "भोगा दानेन भवन्ति, देहिनां सुरगनिश्च शीलेनं । भावनया च विमुतिस्तपसा सर्वाणि सिद्ध्यन्ति ” ॥२०५॥--- दान देनेसे प्राणियोको भोगकी प्राप्ति होती है । शील पालनसे देवगति मिलती है । भावसे मुक्ति मिलती हैं तथा तपसे सब कार्योंकी सिद्धि होती है । ऐसा सुनने से उसकी प्राप्तिके लिये प्राप्तिकी इच्छासे, स्वजन के भाग्रह से और बलात्कार आदि कारणोसे कई पुरुषोंने दीक्षा ली है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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