SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ : धर्मविन्दु रहे । अन्यथा अपनी शक्तिका व्यर्थ क्षय होने का प्रसंग आता है। अर्थात् कृत कर्मको छोडकर अकृत करे। ततश्च-डचितवेलयागमन मिति ॥६२॥ (१९६) मूलार्थ-वहांसे उचित समय पर घर पर लोटे ॥६३।। विवेचन-उचितवेलया- योग्य समय होने पर व्यापार, राजसेवा या व्यावहारिक कार्यका समय हो जाने पर, आगमनम्मंदिर तथा गुरुके पाससे लौटना।। उचित समय हो जाने पर जैसे व्यापार, नौकरी अथवा अन्य धंधे पर जानेके समयसे कुछ पूर्व मंदिर, उपाश्रय आदिसे घर लौटे। गृहस्थकों अपने कर्तव्यके लिये घर आना जरूरी है। ततो धर्मप्रधानो व्यवहार इति ॥६४|(१९७) मूलार्थ-तत्र धर्मपूर्वक अपना व्यवहार करे ॥६॥ विवेचन-व्यवहार-कुलकमागत' (१-३) इत्यादि सूत्र में कहे गये अनुसार अनुष्ठान करना । __प्रथम अध्यायमे कहे हुए " कुलक्रमागत" आदि सूत्रके अनुसार सर्व अनुष्ठान करना । गृहस्थ उचित संसारव्यवहार करे पर धर्मभावना हर समय रखे । प्रत्येक कार्यमें धर्मको प्रधान समझ कर उच्च भावना सहित कार्य करे ।। तथा-द्रव्ये संतोषपरतेति ॥६५॥ (१९०) मूलार्थ द्रव्य-धन, धान्य आदिमें संतोपपरता या संतोपप्रधानता-मुख्यता संतोप रखना । धार्मिक पुरुष अपने परिमाण
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy