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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३७ गुरुने जो अर्थ वताया हो, जो निश्चय करके वचन कहा हो उसे ध्यान देकर मनसे ग्रहण करना चाहिये। एकाग्र चित्तसे मनमें धारणा करे। कहा है कि 'सम्म वियारियचं, अकृपयं भावणापहाणेणं । विसए य ठावियन्नं, वहुसुयगुरूणो सयासाओ" ॥१२३॥ -बहुश्रुत गुरुले सुने हुए अर्थका भावना प्रधान श्रावक सम्यक् प्रकारसे विचार करे तथा उसके स्वरूपका विचार कर । तथा-ग्लानादिकार्याभियोग इति ॥६१॥ (१९४) मूलार्थ-ग्लान आदिका कार्य करनेमें सावधान रहना ।। विवेचन ग्लानादीनाम्- बीमार, बालक, वृद्ध आगमको ग्रहण करनेके लिये उद्यत तथा अतिथि आदि साधु व साधर्मिकोका, कार्याणि-अन्न, पान, वस्त्र, औषध, पुस्तक, आश्रय तथा सहजागरण आदि कार्योंमें, अभियोग-सावधानीसे तथा चित्त देकर कराना। ऐसे साधु व साधर्मिक जनोंका जो बीमार हो या बालक, वृद्ध या अतिथि हों उनके कार्योंको (उपरोक्त) ध्यान देकर करना चाहिये। तथा-कृताकृतप्रत्युपेक्षेति ॥६२॥ (१९५), मूलार्थ-कृत, व अकृत कार्योंके प्रति सावधानी (व तत्परता) रखना ॥६२॥ विवेचन-मंदिरके तथा ग्लान आदि जनोके किये हुए या न किये हुए (कृत व अकृत ) सब कार्योंका बराबर ध्यान रखना। : निपुण नेत्रोद्वारा उसकी गवेषणा करना चाहिये। उसके लिये तत्पर
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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