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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३९ किये हुएके अनुसार तथा निर्वाह मात्रके लिये जो द्रव्य-धन मिले उसमें संतोष रखना ||६५|| विवेचन - धार्मिक गृहस्थ अपना व्यवहार करते समय द्रव्यका उपार्जन करनेमें मित द्रव्य निर्वाह मात्र के हेतुसे संतोष रखकर उपार्जन करे। असंतोष दुःखका हेतु है । कहा है 'अत्युष्णात् सघृतादन्नादच्छिद्रात् सितवाससः । अपरप्रेष्यभावाच्च, शेषमिच्छन् पतत्यधः " ॥ १२४ ॥ 45 - थोडे घीके साथ गरम अन्न मिले, छिद्ररहित सफेद वस्त्र मिले तथा पराई नौकरी न करनी पडे इतने से संतोष माने । वाकीकी अधिक इच्छा करनेवाला नीचे गिरता है । उसका अधः पात होता है । कहा है 6" " 'संतोषामृततृप्तानां यत् सुख शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानां इतश्चेतश्च धावताम् ॥ १२५ ॥ - संतोपरूपी अमृतसे तृप्त तथा शांत चित्तवालोंको जो सुख प्राप्त है वह धनमें लुब्ध हुए इधर उधर भटकते हुए पृरुपोको कहांसे प्राप्त हो सकता है ? उद्विग्न चित्तको संतोष कहां और संतोष बिना सुख कहां " । 2 तथा - धर्मे धनवुद्धिरिति ॥ ६६ ॥ (१९९) मूलार्थ' धर्म ही धन है' ऐसी बुद्धि रखे ||६६ ॥ विवेचन- धर्मे - सर्व वाछितकी असाधारण सिद्धि देनेवाले या सिद्धिके मूल श्रुत चारित्ररूप धर्ममें, धनबुद्धि- निरंतर यह सोचना कि बुद्धिमानों का धर्म ही धन है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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