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________________ २३ (७३) वर्गकेवलि-वृत्ति - हरिभद्रसूरिजीने इसकी रचना करके संघकी विनति से इसका नाग किया था । (७४) विशेषावश्यक - वृत्ति - यह 'विसेसावस्सय ' की वृत्ति है । (७५) वीरथयं । (७६) वीरांगदकहा । (७७) वीसवीसिया (विंशतिर्विशिका ) - इसमे दान, पूजा आदि चातका निरूपण है । ( ७८) वेदवाह्यता निराकरणता । (७९) व्यवहारकल्प - वृत्ति - ' ववहारकप्प ' नामक आगमकी यह टीका है। (८०) शात्रवार्तासमुच्चय- इसमें आत्मा, हिंसा, सर्वज्ञता इत्यादि विषयक जैन मान्यताका निरूपण है और वैदिक, बौद्ध, साख्य, ब्रह्माद्वैतवादियोके कितनेक मन्तव्यका खंडन है । (८१) शास्त्रवार्तासमुच्चय टीका याने दिक्प्रपा - यह ' गात्रवार्तासमुच्चय' की टीका है । (८२) श्रावकधर्मसमास वृत्ति- यह टीका है। 'सावगधम्मसमास' की (८३) श्रावकप्रज्ञप्ति । (८४) श्रावकप्रज्ञप्ति टीका- यह 'श्रावकप्रज्ञप्ति ' की टीका है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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