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________________ १९६: धर्मविन्दु रूपका काम तथा रस, गध व स्पर्श ये मोग इन सबमे तीव्र अभिलाषा रखना, उसमें अत्यंत अध्यवसाय (हर घडी उसीमें ध्यान) रखना या निरतर विषयसुख भोगनके लिये वाजीकरण आदि उपचारस कामोद्दीपन करना या हर समय विषयसुख व कामभोगकी इच्छा व लालसा करना। . इसम दूसरा व वासरा अतिचार स्वदारा संतोष व्रत रखनेवालके लिये भातचार है, परदारविरमणवाल नताके लिये नहीं। दूसरे तीनों इन दोनोके लिये हैं। सूत्रमं कहा है “सदारसतोसस्स इम पच अइयारा "-स्वदारा संतोषके लिये ये पाचो आतचार है। इस प्रकार कहनम निम्नभावना है पैसे देकर अल्प कालके लिये रखी हुई स्त्री या वेश्या वह स्वस्सी तरीके मान लता है, अतः स्वदारा सतोषकी कल्पनाका उसका व्रतमग नहीं होता तथापि वस्तुतः वह थोडे समयके लिये है अतः उसकी स्वनी नहीं है अत. मतभग होता है। अतः भग व अभंग होनस अतिचार हुआ। न रखी हुई ऐसी वेश्याक साथ गमन, अनाभोग आदि व अतिक्रम मादस अतिचार होता है। परदार विरमण व्रतवालेके ये दोनो अतिचार नहीं है। थोडे कालके लिये रखी हुई अथवा न रखी हुई दोनो वेश्या हैं। अनाथ कुलीन स्त्री भी अनाथ होनेसे तथा वेश्या ये परस्त्री नहीं है। वस्तुतः रीतिसे तो ये दोनो स्वदारा संतोषी के लिये व्रतभंग ही है, कारण कि स्व खुदकी व्याही हुई स्त्रीको छोड कर किसीके भी
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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