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________________ AAM १७८ : धर्मविन्दु मूलार्थ और दिग्परिमाण व्रत, भोगोपभोगका प्रमाण तथा अनर्थदंड विरमग-ये तीन गुणवत कहलाते हैं ॥१७॥ विवेचन-शास्त्रोमें दिशाओंका अनेक प्रकारका वर्णन है। जिस दिशामें सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा है। अन्य पश्चिम, दक्षिण, उत्तर आदि आठ दिशाये तथा ऊपर व नीचे इस प्रकार दस दिशाओमें गमनागमन-जानेका परिमाण कर लेना, इस नियमको दिग्वत या दिग्परिमाण व्रत कहते हैं। भोजन आदि जो एकबारमें समाप्त हो जाता है-भोग कहलाते हैं। वस्त्र, स्त्री आदि जो बार बार भोगे जाते हैं-वे उपभोग कहलाते हैं। इन भोग तथा उपभोगकी वस्तुओंका परिमाण करना-उनका नियम करना-भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। प्रयोजनके लिये धर्म, स्वजन तथा इंद्रिय आदिके शुद्ध उपकारके लिये अनुष्ठान अर्थदंड कहलाते हैं, इनके विरुद्ध कर्मको अनर्थदण्ड कहते हैं। वह अनर्थदंड चार प्रकारसे होता है-१ अपध्यानाचरित-बुरा चिंतन व ध्यानसे, २ प्रमादाचरित-प्रमाद करनेसे, ३ हिंसाप्रदान हथियार आदि हिंसाके साधन देनेसे, तथा ४ पापकर्मोपदेश-पाप कर्मका उपदेश करनेसे–चार प्रकारका अनर्थदंड होता है। इस अनर्थदंडको नहीं करना, इसका त्याग करना-अनर्थदंड विरमण व्रत कहलाता है। । ये तीनों गुणवत कहलाते हैं, गुण या उपकारके लिये ये तीनों व्रत होनेसे दिक्परिमाण, भोगोपभोग परिमाण तथा अनर्थदंड ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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