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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : १७९ विरमण - गुणव्रत कहे जाते हैं । कारण कि गुणत्रत सिवाय अणुकी शुद्धि नहीं होती । तथा - सामायिकदेशावकासिक पौषधोपवासातिथिसंविभागश्चत्वारि शिक्षापदानीति ||१८|| (१५१) सूलार्थ - सामायिक, देशावकासिक, पौषध और अतिथिसंविभाग- ये चार शिक्षावत हैं || १८ || विवेचन - सम + आय = समाय, मोक्षके साधनके प्रति समान शक्तिवाले सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी आय या लाभ -समाय है। राग-द्वेष के बीच दोनोंके न रहनेसे उपन्न समभावले या मध्यस्थतासे सम्यग्दर्शनादिका लाभ अथवा सर्व जीवों के साथ मैत्रीभाव के लक्षणका लाभ होता अर्थात् मैत्रीभावको प्राप्त होना समाय है । इसमें तीनों प्रकारके अर्थवाले शब्दोंमे इक प्रत्यय लगानेसे सामायिक शब्द बनता है, जिससे सर्व सवय योगका त्याग और निरवय योग अनुष्ठानरूप जीवके परिणामको सामायिक कहते हैं । देश + अवकाश-देशावकाश, देश अर्थात् कुछ अंश में पहलेसे ही ग्रहण किया हुआ दिशात्रत जैसे शत योजन आदिका परिमाणसे अवकाश अर्थात् “ आज इतने योजन तक जाना इसका नित्य पचक्खाण करना " - उसे देशावकासिक व्रत कहते हैं । ' " पोष+घ = पोषध, पोष अर्थात् गुणकी पुष्टिको धारण करनेवाला पौषध कहलाता है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिवसों में दोषनिवृत्तिके साथ "
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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