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________________ १५२ : धर्मबिन्दु ( ० लोकस्वभावभावना - चौदह राजलोककी स्थिति तथा उसमें स्थित षट् द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवका विचार करना चाहिये। इस तीन लोकके स्वरूपके विचारको लोकस्वभावभावना कहते हैं । (११) बोधिदुर्लभ भावना – कई जन्म ग्रहण करने पर भी यह उत्तम स्थिति बडी दुर्लभता से प्राप्त हुई है । मनुष्य भव, पूर्ण पंचेद्रियपना, तथा धर्मश्रवणकी इच्छा होने पर भी उत्कृष्ट विशुद्धता बताने वाली -कर्म मैल दूर करनेवाली, सर्वज्ञ प्ररूपित सद्वाणीमे श्रद्धा अतिदुर्लभ है। सत्को सत् व असत्को असत् जानना दुर्लभ हैंयह बोधिदुर्लभभावना है । (१२) धर्मभावना - प्राणियोको तारने की दृष्टिसे सर्वज्ञने सद्ज्ञान सिखाया। रोहिणीया चोरको बिना इच्छाके भगवानकी वाणीका एक शब्द सुननेसे लाभ हुआ तो उसका श्रवण करके उसके अनुसार व्यवहार करनेमे कितना अधिक लाभ होगा ? | सर्वज्ञने दशविध यति धर्म तथा १२ व्रतरूप श्रावक धर्मका उपदेश दिया है । इस प्रकार धर्मका उपदेश करनेवाले सर्वज्ञ तथा धर्मका विचार धर्मभावना है । 2 यह बार भावनाओंका संक्षेपमें स्वरूप कहा ये भावनाएं रागादि मलका नाश करती है । उससे क्या होता है ? शास्त्रकार कहते हैंतद्भावेsar " इति ॥७४॥ ( १३२ )
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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