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________________ गृहस्थ देशना विधि : १५१ योग हैं। मैत्री, कारुण्य, प्रमोद व माध्यस्थ्य भावनासे शुभ कर्मका बंध होता है। आर्त, रौद्र ध्यानसे तथा विषय कषायसे अशुभ कर्मका बन्ध होता है । इस सराग प्रवृत्तिको आश्रव कहते हैं, इसे त्याग कर निष्काम वृत्तिसे काम करे यही- आश्रवभावना है। (८) संवरभावना- आश्रवको रोकना संवर है। नये कर्मबन्धके कार्योंको रोकना या निरोध करना संवर है। सम्यग्ज्ञानसे मिथ्यात्वका नाश करना, विरतिसे अविरतिका रोध, तथा क्रोध, मान, माया, व लोभ नामक कषायोको क्षमा, नम्रता व सरलता तथा संतोषसे क्रमशः जीते । संवर दो हैं - सर्व व देश । सर्व संवर तो १४ वे गुणस्थानक पर स्थित अयोगीके वलीको होता है। देश संवर तो एक, दो या तीन प्रकारके आश्रवको रोकनेसे संभव है । इसके दो भेद हैं- द्रव्यसंवर व भावसंवर । आश्रवसे जो मामका पुद्गल सग्रह है वह रोकना द्रव्यसंवर है । आत्माकी अशुद्ध परिणति हटा कर स्वस्वभावमे रमण करना संवरभावना है। (९) निर्जराभावना-नये कर्मोंका रोध सवर है। पूर्व बंधे हुए कर्मोको तप आदिसे तितर-बितर करना निर्जरा है। निर्जराके दो भेद हैं-सकाम व अकाम । बाह्य-अभ्यतर बारह प्रकारके तपसे केवल मोक्षकी इच्छासे सकाम निर्जरा होती है, जो विरतिसे होती है । अकाम निर्जरा विरतिभाव बिना निष्कारण कष्ट सहनसे होती है। कषाय मंद करके तप करना लाभकारी है। इच्छाका रोष रूप ही सत्य तप है, ऐसे विचारमें रहना उसे निर्जगभावना कहते है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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