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________________ गृहस्थ देशना विधि : १५३ मूलार्थ - उससे रागादि (क्षयसे) अपवर्गप्राप्ति होती है ।। विवेचन - तस्य-दि क्षयसे, भावे- हो जानेसे. अपवर्गमोजकी प्राप्ति । राग आदिके क्षय होनेसे सारे लोकालेकको देखनेकी शक्तिचाला केवल ज्ञान दर्शन आदिकी प्रामिसे इस संसाररून समुद्रको तैर जानेवाले संतजनों को मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है । सब पदार्थों व सच प्राणियोंके प्रति राग व द्वेपका अंत हो जाता है। तब आमा समभाव स्थित होता है। सकल लोकालोकको देखनेवाला केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राम होता है । वह उसमें प्रगट होता हैं । इस संसार रूप समुद्रको तैरनेवाले प्राणीको मोक्ष मिलता है। मोक्षका लक्षण क्या है ? कहते हैं स आत्यन्तिको दुःखविगम इति ॥ ७२ ॥ (१३३) मूलार्थ - पूर्णतया सत्र दुःखोंका नाश मोक्ष है ||७५ || विवेचन -मः - मोक्ष, अत्यन्तम्- समस्त, सकल दुःखकी शक्तिको निर्मूल करनेसे होता है, दुःखविगम:- सारे शरीर व मन संबंधी दुःखोंका नाश | सभी दुखोंके पूर्णत नाशको ही मोक्ष कहते हैं। सारे जीवलोकसे भिन्न असाधारण, आनंदका अनुभव वहा होता है। वहां जरा भी दुःख नहीं है. सब प्रकारका उच आनन्द है । वह सुखस्थान ही मोक्ष है। वहां अन्य किसी की प्राप्तिकी इच्छा नहीं रहती । वह ट सुवास या परम फल शुद्ध चारित्रसे मिलेगा ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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