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________________ १४६ : धर्मविन्दु गांठके तूट जाने पर वह फिरसे बंधती ही नहीं। जब आत्माको आत्माकी तरह जान लिया, और आत्माको छोडकर अन्य सब पदार्थ विनाशी और जड माने तब गन्थिभेद होनेके समयसे आयुष्यको छोडकर सभी कर्मोंकी स्थिति कुछ न्यून एक कोटाकोटि सागरोपमकी रहती है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्मकी ३० कोटाकोटिकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे २९ कोटाकोटि सागरोपमका क्षय हो जाता है। ठीक तरहसे समकित प्राप्त हो जाने पर पुनः मिथ्यात्व पाने में तीव्रतर क्लेश होने पर भी उतने ही कर्मबन्धन करेगा जितनी अन्य कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति रहती है । नवीन कर्मबन्ध उससे अधिक समयका न होगा। तथा-असत्यपाये न दुर्गतिरिति ॥७१।। (१२९) मूलार्थ-और नाश न हो तो दुर्गति नहीं होती ।। ७१॥ विवेचन-असति-अविद्यमान न होना, अपाये- विनाश, दुर्गति:-नरक, तिथंच व कुदेव 'या कुमनुष्यकी गति । ____ समकित दर्शनका नाश न हो या मिथ्यात्वकी प्राप्ति न हो और बुद्धिभेद आदि कारण न होने पर शुद्ध भव्यत्वके सामर्थ्य से दुर्गति नहीं होती। वह सुदेवत्व तथा सुमनुष्यत्वको ही प्राप्त होता है। पर यदि पहले ही दुर्गतिका आयु बांध चुका हो तो दुर्गति हो सकती है। अन्यथा दुर्गति होगी ही नहीं। . तथा-विशुद्धे चारित्रमिति ॥७२।। (१३०) मूलार्थ-और समकितकी शुद्धिसे चारित्रकी प्राप्ति होती है ॥७२॥ ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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