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________________ गृहस्थ देशना विधि १४७ विवेचन-विशुद्धे-निशंकित आदि आठ प्रकारके दर्शनाचाररूपी जल प्रवाहसे शंका आदिका की चड घुल चुका है उस, उत्कर्ष प्राप्ति के लक्षणवाले (देखो सूत्र ६९ पृष्ठ १४४ ) ऐसे शुद्ध समकितसे, चारित्रम्-सर्व सावध (पापरूप योग का त्याग करके निरवद्य योगका आचार पालनरून चारित्र । समकितकी पूर्ण शुद्धिसे चारित्रकी प्राप्ति होती है। शुद्ध सम्यक्त्व ही चारित्र रूप है। 'आचागगसूत्र' में कहा है कि 'जं मोणंति पासहा, तं,सम्मति पासहा । जं सम्मति पासहा, तं मोणंति पासह ॥ -"जो इस मुनिपनको देखे तो सम्यग ज्ञानको देखो और निश्चय समकित को देखो " अर्थात् समकित भाव मुनि भाव है और मुनि भाव समकित भाव है, क्योंकि ज्ञानका फल विरति है और समकितसे मुनिभाव आता है। भावनातो रागादिक्षय इति ॥७३।। (१३१) . मूलार्थ-भावनासे रागादिकका क्षय होता है ।।७३॥ - विवेचन-मुमुक्षु पुरुष जिसका निरंतर अभ्यास करते हैं वह भावना है वह अनित्यत्व, अशरण' आदि १२ प्रकारकी है। कहा है कि- ... ... .. "भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकताऽन्यत्वे । अशुचित्वं संसारः, कर्माश्रव-संवरविधिश्च ॥२४॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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