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________________ गृहस्थ देशना विधि १४६ विवेचन- ग्रन्थि- राग-द्वेषका परिणाम, ग्रंथि-गाठ समान होनेसे राग-द्वेषको प्रन्थि कहा है, भेदेन- अपूर्वकरणरूपी वनकी सई द्वारा छिद्र करनेसे शुद्ध तत्त्व व श्रद्धा तथा समकितका सामर्थ्य प्राप्त होनेसे, अत्यन्त- पूर्ववत् गहन, संक्लेश:- राग-द्वेषका परिणाम । - - राग-द्वेष जिसका परिणाम ग्रन्थि( गांठ )के समान दृढ है, तत्त्व श्रद्धारूप समकितकी वज्ररूपी सूईसे छेद दिये जानेके वाद जब कि शुद्ध तत्त्वश्रद्धा प्राप्त हो जाती है तो राग-द्वेषके परिणाम पहलेकी तरह निविड या गहन नहीं होते । आत्माका तथा तत्वका ज्ञान हो जानेके बाद राग-द्वेषकी कमी हो जाती है। जैसे मणिमें छेद कर देनेके बाद वह मलसे पूरित होने पर भी पहले जैसा दृढ व कठिन नहीं होता, उसमें छिद्र रहता ही है और वह पूर्वावस्थाको प्राप्त नहीं कर सकता। वैसे ही राग-द्वेषकी ग्रन्थि छिद जानेके बाद वह इतनी दृढ नहीं हो सकती और परिणाम धीरे धीरे शुद्ध होते जाते हैं अर्थात् सम्यक्त्वंसे राग द्वेषकी अन्थि टूटने पर शुद्ध परिणाम पैदा होते हैं। न भूयस्तद्वन्धनमिति ॥ ७० ॥ (१२८) मूलार्थ-पुनः उस ( ग्रन्थि का बन्धन नहीं होता ॥७॥ विवेचन- भूयः- फिरसे, तस्य- प्रन्थिका, बन्धनम्बंधना, फिर होना। फिरसे राग द्वेषकी उस प्रन्थिका बन्धन नहीं होता । उस गहन ૧૦
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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