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________________ गृहस्थ देशना विधि : १०९ पर गिरते हैं, उछलते हैं तथा तडफडाते है । तथा कर्मपटलसे अंघ बने हुए वे प्राणी अपने बाता (रक्षक)को नहीं देख सकते ॥ क्षुधा, तृपा, बर्फ, उष्णता और भयसे पीडित, पराधीनताके व्यसनसे आतुर ऐसे दुःखी तियेच जीवोको खुखका प्रसंग तो तुच्छ और कहने मात्र है परन्तु वस्तुत. उनको दु ख ही दुःख हैं। मनुष्य भवमे भी प्राणी दारिद्रय, रोग, दुर्भाग्य, शोक, मूर्खता तथा जाति, कुल और शरीरके अवयवोंकी न्यूनताको प्राप्त होते है। -देवताओंको भी यद्यपि अनेक सुख हैं पर उसका अंत आ जाता है अतः देवोंको अपने भवमें च्यवन ( दूसरमें जाना ) तथा वियोगका दुख, क्रोध, ईर्ष्या, मद और मदनसे उनको परिताप (कष्ट ) उत्पन्न होता है। हे आर्यों! विचार कर कहो कि देवता ओंको भी कौनसा कहनेलायक सुख है। ___ यद्यपि अपेक्षासे सुख है तथापि वह भी अंशत ही है, पूर्णतः नहीं । तथा-दुष्कुलजन्मप्रशस्तिरिति ॥२५।। (८३) मूलार्थ-और इससे बुरे व हलके कुलमें जन्म होता है वह बतावे। विवेचन-दुष्कुलेषु-शक, यवन, शबर व बर्वर तथा उससे संबंधित कुलोमें, प्रशस्ति:-वताना । __ इस प्रकारके, असदाचार, बुरे आचरण करनेवालोंका जन्म यवन आदि कुलोंमें होता है। इस वातको भली भाति समझा देना ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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