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________________ १०८ : धर्मविन्दु www - साथ ही निचके दुखोका वर्णन करे, इससे मनुष्य इन दुःखोंकें - कारण असदाचारका त्याग करें । जैसे ||३८|| 'तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्ति, कुन्तैर्विपमैः परश्वधैश्वकैः । परशु त्रिशूल तोमर मुद्गरवासीमुपण्डीभि: “ संभिन्नतालुशिरसरिछन्नभुजाश्छिन्नकर्णनासौष्टाः । भिन्नहृदयोदरात्रा, भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्त्ताः ॥६९॥ " निपतन्त उत्पतन्तो, विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं नरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥७०॥ <f 'क्षुत्तृहिमात्युष्णभयार्दितानां, पराभियोगव्यसनातुराणाम् । अह तिरश्वामभिदुःखितानां, सुखानुषङ्गः किल वार्त्तमेतत् ॥७१॥ " मानुष्यकेऽपि दारिद्यरोगदौर्भाग्यशोकमौर्याणि । जातिकुलावयवादिन्यूनत्वं चाशुते प्राणी ॥७२ 'देवेषु च्यवनवियोगदुःखितेषु, क्रोधेयमिदमदनातितापितेषु । आर्या ! नस्तदिह विचाय संवदत्सु, यत् सौख्य किमपि निवेदनीयमस्ति " ॥७३॥ ४८ ८ - तीक्ष्ण तलवारोंसे, तेज व चमचमाते भालसे, विषमं कुल्हाडी, चक्र, परशु, त्रिशूल, तोमर, मुद्गर, वासी, मुषंडि आदिसे तालु व सिर छेदे जातें है, भुजाएँ कांटी जाती हैं, कर्ण, नाक व ओठ काटे जाते हैं, हृदय, अंतडियों व पेट चीरे जाते हैं और चक्षुपटे फटते हैं। इससे नारक जीव दु खसे आते हो जाते हैं । वे बेचारे जमीन
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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