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________________ ११० : धर्मविन्दु चाहिये। उससे और भी उनके दुराचार सीखते हैं तथा उससे दुःख पर दुःख आता है। उन कुलोंमें उत्पन्न प्राणियोंसे क्या कहे सो कहते हैं दुःखपरम्परा निवेदनमिति ॥२६॥ (८४) मूलाथ-उनको दुःखकी परंपरा समझाना। विवेचन-उपदेशक उन बुरे कुलोंमें उत्पन्न व्यक्तियोको, दुःखकी जो परंपरा है, एक दुःखके कारण दूसरा, दुराचारसे दुख, उससे फिर दुराचार और तब अत्यंत दुःख-ऐसे इस प्रवाह 'जनित दुःखके बारेमें समझावे । जैसे-असदाचारवाले पुरुष उससे परवश हो जाते हैं और उससे बुरे कुलमें उत्पन्न होते हैं, उसमें भी उन प्राणियोको हलका तथा बुरा वर्ण, रस, गंध व स्पर्शवाले शरीरकी प्राप्ति होती है। उनको इस दुःखका निवारण करनेवाला धर्म स्वममें भी नहीं मिलता व सबोध दुर्लभ होता है। अत. जिससे हिंसा, असत्य, तथा स्तेय आदि अशुद्ध कर्ममें प्रवृत्त होनेसे नरकादिक फल देनेवाले पाप कर्मकी वृद्धि होती है। उसे उससे परास्त हुए उन प्राणियोंको इहलोक तथा परलोकमें 'अनुबन्धविच्छेदरहितदुःखपरम्परा' प्राप्त होती है अर्थात् जन्म, जन्मान्तरमें पाप पर पाप बंधते जाते हैं। उन पाप कर्मोंकी उत्पत्तिमें कोई विच्छेद या व्याघात नहीं पड़ता। इस निरंतर पाप बन्धसे निरंतर दुःख आता है और यह दुःख परंपरा चलती रहती है, सुख कहीं भी प्रगट नहीं होता। इस प्रकार असदाचार दुःखपरंपरा लानेवाला है। कहा भी है कि
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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