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________________ गृहस्थ देशना विधि : ९९ २. ऊनोदरी-पुरुषका आहार ३२ कंवल (एक वार मुंहमें जावे वह १ कंवल) तथा खीका २८ कंवल माना गया है। इससे कम खानेको ऊणोदरी तप कहते हैं । यह द्रव्य तप है। इसी प्रकार ऊणोदरी भाव तप क्रोधादि घटानेसे होता है। ३. वृत्तिसंक्षेप-खानेके पदार्थ या क्षेत्रको सीमित करना वृत्तिसंक्षेप है। ४. रसत्याग-दही, दूध आदि रसके पदार्थोंका त्याग | ५. कायक्लेश-विभिन्न आसन या लोचादिसे जो शरीरको कष्ट हो वह । ६ संलीनता-अंगोपांग फैला कर न सोना, समेटकर सोना; इन्द्रिय, कषाय, व मन, वचन तथा काया-तीनों योगोंको वशमें रखना; तथा स्त्री, पशु नपुंसक रहित स्थानमें रहना । आभ्यन्तर तपके मेद इस प्रकार हैं "प्रायश्चित्तध्याने, वैयावृत्यविनयावथोत्सर्गः। स्वाध्याय इति तपः, षट्प्रकारमाभ्यन्तर भवति" ॥३२॥ -१ प्रायश्चित्त, २ ध्यान, ३ वैयावञ्च, ४ विनय, ५ कायोसर्ग और स्वाध्याय-यह छ प्रकारका आभ्यन्तर तप कहलाता है। बाह्य तपका हेतु शरीर संयम है तथा आभ्यन्तर तपका मनको वशमें करना; शरीर व मन आत्माके नौकर समान हैं पर स्वामीकी अनुपस्थितिमें जैसे नौकर मनचाहा करते हैं वैसे ही इनके बारेमें भी है। अतः आत्मा अपने इन नौकरोको अपने वशमें करे ताकि
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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