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________________ १०० : धर्मबिन्दु उसकी उन्नति व प्रगति हो सके । पर शरीरको नष्ट करना इसका हेतु नहीं है । शरीर धर्मका प्रथम साधन है । " इच्छा रोधन तप भलो " पर आत्मशक्ति से मनको वश करो। इसके अभ्यास व वैराग्य - दो रास्ते हैं । मनको स्थिर करनेका अभ्यास करते रहना चाहिये। विनाशी वस्तुओ पर वैराग्य हो तभी मन उधर नहीं दौडेगा । सत्य व असत्य तथा नित्य व अनित्य वस्तु के बीच विवेक या भेद करना सीखे । ५. वीर्याचार - बाहर तथा भीतर के सारे सामर्थ्य से अपने सामर्थ्यको छिपाये बिना उपरोक्त ज्ञान दर्शनादिके ३६ आचारोंको यथाशक्ति अगीकार करनेका पराक्रम करे और अंगीकार करने के बाद शक्ति अनुसार उसका पालन करे वह वीर्याचार है । आत्माके प्रत्येक प्रदेश पर अनत कर्म वर्गणाएं हैं पर आत्माका 嚯 एक ही प्रदेश अनंत कर्म वर्गणाओको एक क्षणमे नाश करनेको समर्थ हैं | आत्मविश्वासका किसी भी संयोग में त्याग नहीं करना । तथा - निरीहशक्य पालनेति ॥१२॥ ( ७० ) मूलार्थ - और इच्छारहित होकर यथाशक्ति पालन करे || विवेचन - निरीहेण - ऐहिक व पारलौकिक फलकी इच्छा रहित या राजा, देवता आदि वस्तुओकी धार्मिक क्रियाके फलस्वरूप प्राप्तिकी इच्छाका त्याग । शक्यस्य - ज्ञान आदि पांचो आचारका 'शास्त्रमें ऐसा कहा है ' ऐसी बुद्धि रखकर यथाशक्ति पालन करना । पुरुष धर्मक्रिया करे, उसमें दो वस्तुएं बताई है - एक तो फलकी
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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