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________________ ९८ : धर्मविन्दु १. मनगुप्ति-मनमें उत्पन्न विचार तरंगोंको रोकना, मनको शांत वनना, और संयममें लाना मनगुप्ति है। मनको शुभ अध्यवसायमें रोकना तथा धीरे धीरे उसे एकाग्र बनाकर वशमें लाना चाहिये। २. वचनगुप्ति-वचनो पर पूर्णनिग्रह-मनुष्य परिणामका विचार करके बोले। ३. कायगुप्ति-शरीरको अशुभ व्यापारमें जानेसे रोकना, तथा इंद्रियोंको वशमें रखना। शास्त्रमें इनको अष्ट प्रवचनमाता कहते है। ये समिति व गुप्ति चारित्रका पुत्रवत् पालन करती है, अतः इन्हें यह नाम दिया गया है। ४. तपाचार-इसके मूल भेद दो है । बाह्य व आभ्यंतरइनके प्रत्येकके छ भेद हैं अतः बारह भेद हुए। बायतपके मेद इस प्रकार है"अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः। कायक्लेश संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम्" ॥६॥ --अनशन, ऊनोदरता, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और सलीनता--ये छ बाह्य तप हैं। उनके लक्षण इस प्रकार हैं १. अनशन-चारों प्रकारका आहार त्याग, इसके दो भेद हैं१ थोडे समयका, तथा २, आजीवन । पहेलाका काल वीर शासनमे ६ मास, ऋषभदेवके तीर्थमें १ वर्ष तथा अन्य बाइस तीर्थकरोंके शासनमें ८ मास माना गया है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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