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________________ सू. ८-४-४४० ] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् १७३ पिअ-पञ्भट व गोरडी निच्चल कहिं वि न ठाइ ॥ ४३६॥ त्व-तलोः प्पणः ॥ ८।४।४३७॥ अपभ्रंशे त्वतलोः प्रत्यययोः प्पण इत्यादेशो भवति ॥ वड्डप्पणु परिपाविअइ ।। प्रायोधिकारात् । वड्डत्तणहो तणेण ॥ ४३७ ॥ तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा ॥ ८।४।४३८॥ अपभ्रंशे तव्यप्रत्ययस्य इएव्वउं एव्वउं एवा इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति ।। एउ गृण्हेप्पिणु | मइं जइ प्रिउ उव्वारिज्जइ । महु करिएव्वउं किं पि णवि मरिएव्वउं पर देज्जइ ॥ देसुच्चाडणु सिहि-कढणु घण-कट्टणु जं लोइ । मंजिट्ठए अइरत्तिए सब्बु सहेव्वउं होइ । सोएवा पर वारिआ पुप्फवईहिं समाणु । जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ ४३८ ॥ क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः ॥ ८।४।४३९ ॥ अपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्य इ इउ इवि अवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥इ। हिअडा जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुं । अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं ॥ इउ । गय-घड भज्जिउ जन्ति ॥ इवि। रक्खइ सा विस-हारिणी वे कर चुम्बिवि जीउ । पडिबिम्बिअ-मुंजालु जलु जेहिं अहोडिउ पीउ ॥ अवि। बाह विछोडवि जाहि तुहुं हउं तेइ को दोसु । हिअय-दिउ जइ नीसरहि जाणउं मुञ्ज स रोसु ॥ ४३९ ॥ एप्प्यप्पिण्वेव्येविणवः ॥ ८।४।४४० ॥ अपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्य एप्पि एप्पिणु एवि एविणु इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ जेप्पि असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु ।
SR No.010651
Book TitlePrakrit Vyakaranam
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorParshuram Sharma
PublisherMotilal Laghaji
Publication Year
Total Pages343
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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