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स्वयम्भूस्तात्रे होता है वही शरणागतोंके लिये शान्तिका विधाता होता है और इसलिये जिसके आत्मामें स्वयं शान्ति नहीं वह शरणागतके लिये शान्तिका विधाता भी नहीं हो सकता ८० ।
(१७) जिनदेव कुन्थ्वादि सब प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए होते हैं और उनका धर्मचक्र ज्वर-जरामरणकी उपशान्तिके लिए प्रवर्तित होता है (८१)। तृष्णा (विषयाकांक्षा) रूप अग्नि-ज्वालाएँ स्वभावसे ही संतापित करती हैं। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रि-विषयोंकी सम्पतिसे-प्रचुर परिमाणमें सम्प्राप्तिसे नहीं होती, उलटी वृद्धि ही होती है, ऐसी ही वस्तु-स्थिति है। सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समयके लिये) शरीरके संतापको मिटानेमें निमित्तमात्र हैंतृष्णारूप अग्निज्वालाओंको शान्त करने में समर्थ नहीं होते (८२)। बाह्य दुर्द्धर तप आध्यात्मिक (अन्तरंग) तपकी वृद्धिके लिये विधेय हैं। चार ध्यानोंमेंसे आदिके दो कलुषित ध्यान (आत्त-रौद्र) हेय (ताज्य) हैं और उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यान (धर्म्य, शुक्ल) उपादेय हैं (८३)। कर्मोंकी (आठ मूल प्रकृतियोंमेंसे) चार मूल प्रकृतियां (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) कटुक (घातिया) हैं और वे सम्यग्दर्शनादिरूप सातिशय रत्नत्रयाग्निसे भस्म की जाती हैं, उनके भस्म होनेपर ही आत्मा जातवीर्य-शक्तिसम्पन्न अथवा विकसित होता है और सकल-वेद-विधिका विनेता बनता है (८४) । (१८)पुण्यकीति मुनीन्द्र(जिनेन्द्र)का नाम-कीर्तन भी पवित्र करता है (८७)। मुमुक्षु होनेपर चक्रवर्तीका सारा विभब और साम्राज्य भी जीणं तृणके समान निःसार जान पड़ता है (८८)। कषाय-भटोंकी सेनासे युक्त जो मोहरूप शत्रु है वह पापात्मक
सम्पन्न , उनके भाप सातिशय