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________________ प्रस्तावना २३ १४१, शम-वादानवन , अपगत-प्रमा-दानवान् १४२; देवः, समन्तभद्र-मतः १४३। इन विशेषण-पर्दोको आठ समूहों अथवा विभागोंमें विभाजित किया जा सकता है; जैसे १ कर्मकलंक और दोषों पर विजयके सूचक, २ ज्ञानादि-गुणोत्कर्ष-व्यंजक, ३ परहित-प्रतिपादनादिरूप लोकहितषितामूलक, ४ पूज्यताऽभिव्यञ्जक, ५ शासनकी महत्ताके प्रदर्शक, ६ शारीरिक स्थिति और अभ्युदयके निदर्शक, ७ साधनाकी प्रधानताके प्रकाशक, और ८ मिश्रित-गुणोंके वाचक । . ये सब विशेषणपद एक प्रकारसे अर्हन्तोंके नाम हैं जो उनके किसी किसी गुण अथवा गुणसमूहकी अपेक्षाको साथमें लिये हुए हैं। यद्यपि इन विशेषण-पदोंमें कितने ही विशेषण-पद-जैसे साधुः, मुनिः, यतिः आदिक-साधारण अथवा सामान्य जान पड़ते हैं। क्योंकि वे अर्हत्पदसे रहित दूसरोंके लिए भी प्रयुक्त होते हैं । परन्तु उन्हें यहां साधारण नहीं समझना चाहिये; क्योंकि असाधारण व्यक्तित्वको लिये हुए महान् पुरुषोंके लिए जब साधारण विशेषण प्रयुक्त होते हैं तब वे 'आश्रयाज्जायते लोके निःप्रभोऽपि महाद्युतिः' की उक्तिके अनुसार आश्रयके माहाम्यसे असाधारण अर्थके द्योतक होते हैं-उनका अर्थ अपनी चरमसीमाको पहुँचा हुआ ही नहीं होता बल्कि दुसरे अर्थोकी प्रभाको भी अपने साथमें लिये हुए होता है। जैनतीर्थङ्कर अहंद्गुणोंकी दृष्टि से प्रायः समान होते हैं, इसलिए व्यक्तित्व-विशेषकी कुछ बातोंको छोड़कर अहत्पदकी दृष्टि से एक तीर्थङ्करके जो गुण अथवा विशेषण हैं वे ही दूसरेके हैं-भले ही उनके साथमें उन विशेषणोंका प्रयोग न हुआ हो या प्रयोगको अवसर न मिला हो। और इस तरह अन्तिम तीर्थङ्कर श्रीवीरजिनेन्द्र में उन सभी गुणोंकी परिसमाप्ति एवं पूर्णता
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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