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________________ ... ...mor..... स्वयम्भूस्तोत्र वादों-मतोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे। उनका शासन नयोंके भङ्ग अथवा भक्तिरूप अलङ्कारोंसे अलंकृत है-अनेकान्तवादका आश्रय लेकर नयोंके सापेक्ष व्यवहारकी सुन्दर शिक्षा देता है और इस तरह यथार्थ वस्तुतत्त्वके निरूपण और परहित-प्रतिपादनादिमें समर्थ होता हुआ बहुगुण-सम्पत्तिसे युक्त है. पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब ओरसे भद्ररूप, निर्बाधतादि-विशिष्ट शोभासे सम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी है; जब कि दूसरोंका-एकान्तवादियोंका-शासन मधुर वचनोंके विन्याससे मनोज्ञ होता हुआ भी बहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थवादिता, और परहित-प्रतिपादनादिरूप बहुतसे गुण हैं उनकी शोभासे रहित है। ___ स्तवनोंके इस परिचय-समुच्चय-परसे यह साफ जाना जाता हैं कि सभी जैन तीर्थङ्कर स्वावलम्बी हुए हैं । उन्होंने अपने आत्मदोषों और उनके कारणोंको स्वयं समझा है और समझ कर अपने ही पुरुषार्थसे-अपने ही ज्ञानबल और योग बलसेउन्हें दूर एवं निमूल कियाहै। अपने आत्मदोषोंको स्वयं दूर तथा निमूल करके और इस तरह अपना आत्म-विकास स्वयं सिद्ध करके वे मोह, माया, ममता और तृष्णादिसे रहित 'स्वयम्भू' बने हैं--पूर्ण दर्शन-ज्ञान एवं सुख-शक्तिको लिये हुए 'अर्हत्पदको' प्राप्त हुए हैं। और इस पदको प्राप्त करनेके वाद ही वे दूसरोंको उपदेश देने में प्रवृत्त हुए हैं। उपदेशके लिये परमकरुणा-भावसे प्रेरित होकर उन्होंने जगह-जगह विहार कियाहै और उस विहारके अवसर पर उनके उपदेशके लिए बड़ी बड़ी सभाएँ जुडी हैं, जिन्हें समवसरण' कहा जाता है । उन सबका उपदेश,
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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