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स्वयम्भूस्तोत्र अतिसेवितहै। उन्होंने इस अखिल विश्वको सदा करतलस्थित स्फटिकमणिके समान युगपत् जाना था और उनके इस जाननेमें बाह्यकरण-चक्षुरादिक और अन्तःकरण-मन ये अलग-अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते थे और न किसी प्रकारका उचकार ही सम्पन्न करते थे।
(२३) पार्श्व-जिन महामना थे, वे वैरीके वशवर्ती--कमठशत्रुके इशारे पर नाचने वाले--उन भयङ्कर मेघोंसे उपद्रवित होनेपर भी अपने योगसे (शुक्लध्यानसे ) चलायमान नहीं हुए थे, जो नीले-श्यामवर्णके धारक, इन्द्रधनुष तथा विद्युद्-गुणोंसे युक्त और भयङ्कर वज्र, वायु तथा वर्षाको चारों तरफ बखेरनेवाले थे। इस उपसर्गके समय धरण नागने उन्हें अपने बृहत्फणाओंके मण्डलरूप मण्डपसे वेष्ठित किया था और वे अपने योगरूप खड्गकी तीक्ष्ण धारसे दुर्जय मोहशत्रको जीतकर उस आर्हन्त्यपदको प्राप्त हुए थे जो अचिन्त्य है, अद्भ त है और त्रिलोककी सातिशय-पूजाका स्थान है । उन्हें विधूतकल्मष (घातिकर्मचतुष्टयरूप पापमलसेरहित ), शमोपदेशक (मोक्षमार्गके उपदेष्टा) और ईश्वर (सकल-लोकप्रभु ) के रूपमें देख कर वे वनवासी तपस्वी भी शरणमें प्राप्त हुए थे जो अपने श्रमको-पंचाग्नि साधनादिरूप प्रयासको-विफल समझ गए थे और भगवान पार्श्व-जैसे विधूतकल्मष ईश्वर होनेकी इच्छा रखते थे। पाचप्रभु समग्रबुद्धि थे, सच्ची विद्याओं तथा तपस्याओंके प्रणेता थे, उग्रकुलरूप आकाशके चन्द्रमा थे और उन्होंने मिथ्यामार्गों की दृष्टियोंसे उत्पन्न होने वाले विभ्रमोंको विनष्ट किया था। __(२४) वीर-जिन अपनी गुणसमुत्थ-निर्मलकीर्ति अथवा दिव्यवाणीसे पृथ्वी ( समवसरणभूमि ) पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि चन्द्रमा आकाशमें नक्षत्र-सभास्थित