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________________ ty. ममन्तभद्र-भारती २४ श्रीवीर-जिन-स्तवन -tw܀܀+--- कीर्त्या मुवि भासि तया वीर ! त्वं गुण-समुत्थया भासितया । भामोडुसभाऽसितया मोम इव व्योम्नि कुन्द-शोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर जिन ! आप उस निर्मलकीर्तिसे-ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (आत्म-शरीर-गत) गुणोंसे समुद्भत है, पृथ्वी पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा | आकाशमें नक्षत्र-सभा-स्थित उस प्रभा-दीप्तिसे शोभता है जो कि कुन्द-पुष्पोंकी शोभाके समान सब ओरसे धवल है।' तव जिन ! शासन-विभवो - ' जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । दोष-कशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशाऽऽसनविभवः ॥२॥ 'हे वीर जिन । आपका शासन-माहात्म्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादन-स्वरूप गौरव-कलिकालमें भी जयको । प्राप्त है-मर्वोत्कृष्टरूपसे वर्त रहा है, उसके प्रभावसे गुणोंमें अनुशासन-प्राप्त शिष्यजनोंका भव विनष्ट हुआ है-संसारपरि भ्रमण सदाके लिए छूटा है-इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप, , चाबुकों का निराकरण करने में समर्थ हैं-चाबुकोंकी तरह पीडाकारी ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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