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स्वयम्भू-स्तात्र
यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः। वनौकसः स्व-श्रम-वन्ध्य-बुद्धयः
शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥४॥ 'जिन्हें विधूतकल्मष-घातिकर्मचतुष्टयरूप पापसे रहित--, शमोपदेशक-मोक्षमार्गके उपदेष्टा-और ईश्वरके-सकल-लोक-प्रभुकेरूपमें देखकर वे (अन्यमतानुयायी) वनवासी तपस्वी भी शरणमें प्राप्त हुए-मोक्षमार्गमें लगे-जो अपने श्रमको-पंचाग्निसाधनादि
रूप प्रयासको-विफल समझ गये थे और वैसे ही (भगवान् पार्श्व! जैसे विधूतकल्मष ईश्वर ) होनेकी इच्छा रखते थे।'
स सत्य-विद्या-तपसां प्रणायकः समग्रधीरुग्रकुलाऽम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते
विलीन-मिथ्यापथ-दृष्टि-विभ्रमः ॥॥ (१३५) 'वे ( उक्त गुणविशिष्ट ) श्रीपार्श्वजिन मेरे द्वारा प्रणाम किये जाते हैं, जो कि सच्ची विद्यांत्रों तथा तपस्याओंके प्रणेता हैं,
पूर्णबुद्धि-सर्वज्ञ हैं, उग्रवंशरूप आकाशके चंद्रमा हैं और ! जिन्होंने मिथ्यादर्शनादिरूप कुमार्गकी दृष्टियोंसे उत्पन्न होनेवाले ! विभ्रमोंको-सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप बुद्धि-विकारोंको-विनष्ट किया है।
है अथवा यों कहिए कि भव्यजन जिनके प्रसादसे सम्यग्दर्शनादिरूप । सन्मार्गके उपदेशको पाकर अनेकान्त-दृष्टि बने हैं और सर्वथा एकान्तॐ वादि-मतोंके विभ्रमसे मुक्त हुए हैं ।'
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