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- समन्तभद्र-भारती
शील-जलधिरभवो विभव
स्त्वमरिष्टनेमि-जिनकुञ्जरोऽजरः ॥२॥ __ 'विकसित-कमलदलके समान दीर्घ नेत्रोंके धारक और हरिवंशमें ध्वजरूप हे अरिष्टनेमि-जिनेन्द्र ! आप भगवान्–सातिशवज्ञानवान्-,ऋषि-ऋद्धिसम्पन्न-, और शीलसमुद्र-अठारह हज़ार । शीलोंके धारक-हुए हैं; आपने परमयोगरूप शुक्लध्यानाग्निसे कल्मषेन्धनको-ज्ञानावरणादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया है और ! ज्ञानकी विपुल ( निरवशेष-द्योतनसमर्थ विस्तीर्ण) किरणोंसे सम्पूर्ण । जगत अथवा लोकालोकको जानकर आप निर्दोष (मायादिरहित ) विनय तथा दमरूप तीर्थके नायक हुए हैं-अापने सम्यग्दर्शन-ज्ञान- । चारित्र-तप और उपचाररूप पंच प्रकारके विनय तथा पंचेन्द्रिय-जयरूप पंचप्रकार दमनके प्रतिपादक प्रवचन-तीर्थका प्रवर्तन किया है । (माथ ही) । आप जरासे रहित और भवसे विमुक्त हुए हैं।'
त्रिदशेन्द्र-मौलि-मणि-रत्नकिरण-विसरोपचुम्बितम् । पाद-युगलममलं भवतो विकसत्कुशेशय-दलाऽरुणोदरम् ॥३॥ नख-चन्द्र-रश्मि-कवचाऽतिरुचिर-शिखराऽङ्गुलि-स्थलम् । म्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्र-मुखरा महर्षयः ॥४॥