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स्वयम्भू-स्तोत्र :
| रहा है और आपके वचन तथा मनकी जो प्रवृत्ति हुई है वह भी शिव-स्वरूप तथा अति आश्चर्यको लिए हुए हुई है।' . '
स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । इति जिन! सकलज्ञ-लाञ्छनं
वचनमिदं वदतांवरस्य ते ॥४॥ हे मुनिसुव्रत जिन ! आप वदतांवर हैं-प्रवक्ताओंमें श्रेष्ठ हैंआपका यह वचन कि 'चर और अचर ( जंगम-स्थावर ) जगत् , प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोधलक्षणको लिए हुए है'-प्रत्येक समय
में ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश ) स्वरूप है-सर्वज्ञताका चिन्ह j है-संसारभरके जड-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल और मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थामें
प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको एक साथ लक्षित करना सर्वज्ञताके बिना नहीं बन सकता, और इसलिए आपके इस परम अनुभूत वचनसे । स्पष्ट सूचित होता है कि श्राप सर्वज्ञ हैं।'
दुरित-मल-कलङ्कमष्टकं निरुपम-योग-वलेन निर्दहन । अभवदभव-सोख्यवान् भवान्
भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥५॥ (११५) । ( हे मुनिसुव्रत जिन !) आप अनुपम योगबलसे-परमशुक्लध्यानामिके तेजसे-आठों पाप-मलरूप कलंकोंको-जीवात्माके वास्तविक स्वरूपको आच्छादन करनेवाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु नामके आठों कर्ममलोंको-