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स्वयम्भू-स्तोत्र
१८ श्रीअर-जिन-स्तवन
गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्वहुत्व-कथा स्तुतिः। आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥१॥
विद्यमान गुणोंकी अल्पताको उल्लंघन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है
उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। वह स्तुति (हे अर-जिन ! ) आपमें ! कैसे बन सकती है ?-नहीं बन सकती । क्योंकि आपके गुण , अनन्त होनेसे पूरे तौरपर कहे ही नहीं जा सकते-बढ़ा-चढ़ा •! कर कहनेकी तो फिर बात ही दूर है।'
तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् ।
पुनाति पुण्य-कीर्तेस्ततो याम किश्चन ॥२॥ ___(यद्यपि अापके गुणोंका कथन करना अशक्य है) फिर भी आप !
पुण्यकीर्ति* मुनीन्द्रका चूंकि नाम-कीर्तन भी-भक्तिपूर्वक नामका । 2 उच्चारण भी हमें पवित्र करता है। इसलिये हम आपके गुणोंका, कुछ-लेशमात्र कथन ( यहाँ ) करते हैं।'
* 'कीर्ति' शब्द वाणी, ख्याति और स्तुति तीनों अर्थों में प्रयुक्त में होता है और 'पुण्य' शब्द पवित्रता तथा प्रशस्तताका द्योतक है । अतः
जिनकी वाणी पवित्र-प्रशस्त है, ख्याति पवित्र-प्रशस्त है और स्तुति पुण्योत्पादक-पवित्रतासम्पादक है उन्हें 'पुण्य-कीति' कहते हैं।