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________________ 'समन्तभद्र-भारती बभ्राजिषे सकल-वेद-विधेर्विनेता - . व्यभ्रे यथा विनति दीप्त-रुचिर्विवस्वान् ॥४॥ ___(सातिशय ध्यान करते हुए हे कुन्थुजिन !) आप अपने कर्मोकी र चार कटुक प्रकृतियोंको-ज्ञानवरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोको-रत्नत्रयकी-सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान | और सम्यकचारित्रकी-सातिशय अग्निमें-परमशुक्लध्यानरूप-वह्निमें! भस्म करके जातवीर्य हुए हैं-शक्तिसम्पन्न बने हैं-और सकल वेद-विधिके--सम्पूर्ण लोकाऽलोक-विषयक-ज्ञान-विधायक आगमके2प्रणेता होकर ऐसे शोभायमान हुए हैं जैसे कि घनपटल-विहीन आकाशमें दीप्त किरणोंको लिये हुए सूर्य शोभता है।' यस्मान्मुनीद्र ! तव लोक-पितामहाद्या विद्या-विभूति-कणिकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमाऽऽर्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्व-हितैकतानाः ॥शा(८८) 'हे मुनीन्द्र श्रीकुन्थुजिन! चूंकि लोकपितामहादिक ब्रह्माविष्णु-महेश-कपिल-सुगतादिक-आपकी विद्या (केवलज्ञान) की और विभतिकी-समवसरणादि लक्ष्मीकी-एक काणिकाको भी प्राप्त नहीं ! हैं, इस लिये आत्महित-साधनकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधी जन-गणधरादिक-पुनर्जन्मसे रहित आप अद्वितीय स्तुत्य (स्तुति| पात्र) की स्तुति करते हैं।' -
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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