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________________ स्वयम्भू स्तोत्र • वर्जित और सुस्पष्ट वचनोंके प्रणयनरूप — स्याद्वादन्यायरूपकिरणमाला से युक्त, भव्य -कुमुदनियों के लिए (पूर्व) चन्द्रमा, ऐसे पवित्र भगवान् श्रीचन्द्रप्रभ - जिन मेरे मनको पवित्र करें - उनके वन्दन, कीर्तन, पूजन, भजन, स्मरण और अनुसरणरूप सम्यक् आराधनसे मेरा मन पवित्र होवे । ' ह श्री सुविधि-जिन-स्तवन ~****** २१ एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधित्त्वं प्रमाण - सिद्धं तदतत्स्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे ! स्वधाना नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः ॥ १ ॥ " ' ( शोभन - विधि-विधान के प्रतिपादन द्वारा अन्वर्थ संज्ञाके धारक ) विधि (पुष्पदन्त ) जिन ! आपने अपने ज्ञान - तेजसे उस प्रमाणसिद्ध तत्वका प्रणयन किया है जो सत्-असत् आदिरूप farक्षिताऽविवक्षित स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक हे अनेकान्तात्मक होनेसे किसीकी भी इस एकान्त मान्यताको स्वीकार नहीं करता कि वस्तुतत्व सर्वथा (स्वरूप और पररूप दोनोंसे ही ) सत (विधि) आदि रूप है । यह समालीढपद् - - सम्यक् अनुभूत तत्वका प्रतिपादक 'तदतत्स्वभाव' जैसा पद - आपसे भिन्न मत रखनेवाले दूसरे मतप्रवर्तकों के द्वारा प्रणीत नहीं हुआ है । ' 200 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܣ
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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