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___ समन्तभद्र-भारती
। हैं जिस प्रकार कि मदभरते हुए मस्त हाथी केसरी-सिंहकी गर्जनाओंको सुनकर निर्मद हो जाते हैं।'
यः सर्व-लोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाऽद्भुत-कर्मतेजाः। अनन्त-धामाऽक्षर-विश्वचनुः
समन्तदुःख-क्षय-शासनश्च ॥ ४ ॥ 'जो अद्भुत कर्मतेज थे-अपने योगबलसे जिन्होंने पर्वत-समान कठोर कर्म-पटलोका छेदनकर सदाके लिए अपने प्रात्मासे उनका सम्बन्ध ! विच्छेद किया था अथवा शुक्लथ्याना निके द्वारा उन्हें भस्मीभूत किया था-, (ऐसा करके) जिन्होंने अनन्ततेजरूप अविनश्वर विश्वचक्षुको प्राप्त किया था-केवलज्ञान-केवलदर्शनके द्वारा जो विश्व- । तत्त्वोंके ज्ञाता-दृष्टा थे-और जो सब ओरसे दुःखोंके पूर्ण क्षयरूप मोक्षके शास्ता ( उपदेष्टा ) थे-जगत्को जिन्होंने मोक्षमार्गका यथार्थ । उपदेश दिया था-; और इस तरह ( इन्हीं गुणों के कारण ) जो सम्पूर्ण लोकमें-त्रिभुवनमें-परमेष्ठिताके-परम प्राप्तताके-पदको प्राप्त हुए थे।
स चन्द्रमा भव्य-कुमुद्वतीनां विपन्न-दोषाऽभ्र-कलङ्क-लेपः। व्याकोश-चाङ्-न्याय-मयूख-मालः
पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥॥ (४०) 'वे दोषा-रात्रि, अभ्र-मेघ और कलंक-मृगछालादिके .. लेपसे रहित अथवा रागादिक दोषरूप अभ्र-कलंकके आवरणसे ।