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________________ १०६ स्वयम्भूस्तोत्र कहलाते थे। उन्हें 'आद्यस्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था। अपनी इस अद्भक्ति और लोकहितसाधनकी उत्कट भावनाओंके कारण वे आगेको इस भारतवर्षमें 'तीर्थङ्कर' होनेवाले हैं, ऐसे भी कितने ही उल्लेख अनेक ग्रन्थों में पाये जाते हैं। साथ ही ऐसे भी उल्लेख मिलते है जो उनके 'पदर्द्धिक' अथवा 'चारणऋद्धि' से सम्पन्न होनेके सूचक हैं। ___ श्रीसमन्तभद्र 'स्वामी' पदसे खास तौरपर अभिभूषित थे और यह पद उनके नामका एक अंग ही बन गया था। इसीसे विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे कितने ही आचार्यों तथा पं० आशाधरजी जैसे विद्वानोंने अनेक स्थानोंपर केवल स्वामी' पदके प्रयोग-द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है। निःसन्देह यह पद उस समयकी दृष्टिसे आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है। आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे,तपस्वियोंके स्वामी थे.योगियोंके स्वामी थे, ऋषि-मुनियोंके स्वामी थे. सद्गुणियोंके स्वामी थे. सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे। आपने अपने अवतारसे इस भारतभूमिको विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीमें पवित्र किया है। आपके अवतारसे भारतका गौरव बढ़ा है और इसलिये श्री शुभचन्द्राचार्यने, पाण्डवपुराणमें, आपको जो ‘भारतभूषण' लिखा है वह सब तरह यथार्थ ही है। देहली जुगलकिशोर मुख्तार ता०४-७-१९५१ १.३ देखो, स्वामी समन्तभद्र पृ० ६६, ६२, ६१ (फुटनोट) ४ आजकल तो 'कवि' और 'पण्डित' पदोंकी तरह 'स्वामी' पदका भी दुरुपयोग होने लगा है। .
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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