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________________ समन्तभद्र - परिचय १०५ हुए कहते हैं कि - 'हे राजन् ! मैं इस समुद्र - वलया पृथ्वी पर 'प्रज्ञासिद्ध' हूँ - जो आदेश दूँ वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय. मैं 'सिद्धसारस्वत' हूँ - सरस्वती मुझे सिद्ध है । इस सरस्वतीकी सिद्धि अथवा वचनसिद्धि में ही समन्तभद्रकी उस सफलताका सारा रहस्य संनिहित है जो स्थान स्थान पर वाघोषणाएँ करने पर उन्हें प्राप्त हुई थी और जिसका कुछ विवेचन ऊपर किया जा चुका है। समन्तभद्र की वह सरस्वती ( वाग्देवी ) जिनवाणी माता थी, जिसकी अनेकान्तदृष्टि-द्वारा अनन्य आराधना करके उन्होंने अपनी वाणी में वह अतिशय प्राप्त किया था जिसके आगे सभी नतमस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय - विद्वानोंको उनकी आकर्षित किये हुए है । a समन्तभद्र, श्रद्धा और गुणज्ञता दोनोंको साथमें लिये हुए, बहुत बड़े अद्भक्त थे. अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक सुन्दर सुन्दर स्तुतियां रचनेकी ओर उनकी बड़ी रुचि थी और उन्होंने स्तुतिविद्या में 'सुस्तुत्यां व्यसनं' वाक्यके द्वारा अपनेको वैसी स्तुतियां रचनेका व्यसन बतलाया है । उनके उपलब्ध ग्रन्थों ग्रन्थ स्तोत्रोंके ही रूपको लिये हुए हैं और उनसे उनकी द्वितीय अद्भक्ति प्रकट होती है । 'स्तुतिविद्या' को छोड़कर स्वयम्भू स्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन तो आपके खास स्तुतिग्रन्थ हैं। इनमें जिस स्तोत्र - प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिन से कठिन तात्त्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है. वह समन्तभद्र से पहले के ग्रन्थोंमें प्रायः नहीं पाई जाती । समन्तभद्र अपने स्तुतिग्रन्थों के द्वारा स्तुतिविद्याका खास तौर से उद्धार, iver or faire किया है, और इसी लिये वे 'स्तुतिकार'
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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