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________________ अध्यात्म- रहस्य ५६. जब पौष्टिक पदार्थोके संयोगसे कुछ वृद्धि और रोगादिके कारण कोई हानि हुई तब तब उस वृद्धि हानिको भी मैंने अपने आत्माकी ही वृद्धि हानि समझा है। यह मेरी भारी भूल रही है; क्योंकि मै वस्तुतः उन शरीरादिरूप नहीं हू जो कि जड़ तथा क्षणभंगुर हैं। मैं तो उस अनन्तानन्तचैतन्य शक्तिसे युक्त हूँ जिसकी स्थिति कमी डांवाडोल नहीं होती।' इसी भावको श्रीपूज्यपादाचार्यने अपने समाधितंत्र afra artis द्वारा स्पष्टरूपसे व्यक्त किया है- बहिरात्मेन्द्रिय-द्वारैरात्म-ज्ञान- पराङमुखः । स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्वेनाऽध्यवस्यति ||७|| नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यचं तिर्यगनस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ||८|| नारकं नारकास्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनन्तानन्वीशक्तिः स्वसंवेद्यो ऽचलस्थिति ॥ ६ ॥ ॥ दारादिवपुरप्येवं तदात्माधिष्ठितं विदन् । तदात्मत्वेन' तत्सौख्य-दुःखं संविभजे पुरा ॥ ५०॥ 'इसी प्रकार स्वस्त्री आदिके आत्मा द्वारा अधिष्ठित शरीरको भी उनका श्रात्मा समझते हुए मैंने पहले तजनित उनके सुख और दुखमें भले प्रकार माग लिया है— उनमें आत्मीयताकी कल्पना कर उनके सुख-दुख को अपना सुखदुख समझकर भोगा है ।' १ स्वकीयत्वेन ।
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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