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________________ भूद सन्मति - विद्या प्रकाशमाला यदा यदधितिष्ठामि तदा तत्स्वतया वपुः । विद्वांस्त 'दुवृद्धिहानिभ्यां स्वस्य मन्ये चयतयौ ४६ ---- 'वस्तुतः -- शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे - अनन्तानन्त चैतन्यशक्तिके चक्रसे युक्त होते हुए भी मैंने अनादिश्रविद्याके संस्कारवश इन्द्रियों द्वारा स्फुरायमान होकर जब जिस शरीरको अधिकृत किया है तब उस शरीरको अपना स्वरूप माना है और उसकी वृद्धि हानिसे अपनी वृद्धि-हानि समझी है ।' व्याख्या- इन दो पद्यों तथा अगले पद्यमें भी स्वात्मा अपनी पिछली भूलका सिंहावलोकन कर रहा है । वह सोच रहा है कि 'अनादिकालसे देहादिकमें आत्माकी आन्तिरूप विद्या संस्कारवश मैं इन्द्रियोंके द्वारा ही स्फुरित हो रहा हूँ - बाह्य-पदार्थोंके ग्रहण में प्रवृत्ति करता रहा हूँ - और इसलिये मैंने जब जब जिस पर्याय - शरीरको धारण किया है तत्र तत्र उस पर्याय - शरीरको ही श्रात्मा माना है - मनुष्य - शरीरमें स्थित होकर मैंने अपने को मनुष्य, तियंच - शरीर में स्थित होकर तिर्यच देवशरीरमें स्थित होकर देव और नारक शरीरमें स्थित होकर अपनेको नारकी माना है। साथ ही, उन शरीरोंमें जब ज्ञातवान् । २ तस्य वपुषो वृद्धिश्च - हानिश्चतांभ्या
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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