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________________ १६ सन्मति -विद्या-प्रकाशमाला प्रशस्त कहलाते हैं, वे आत्म-विकास में बाधक हैं और इसलिये मुमुक्षुओंके द्वारा त्याज्य हैं । सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रयधर्मसे, उत्तमक्षमादिरूप दशलक्षण धर्म - मोह-क्षोभादिसे रहित आत्मपरिणामरूप चारित्रधर्मसे अथवा वस्तुके याथात्म्यरूप स्वभावधर्म से जो उपयुक्त है वह 'ध्यान कहलाता है । शुक्लध्यान उसका नाम है जो शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलसे रहित होनेके कारण विशुद्धि (शुचिगुणके प्रकर्पयोग) को प्राप्त है अथवा कपाय- रजके क्षय या उपशमके कारण सुनिर्मल एवं निष्प्रकम्प बना हुआ है और साथही तत्त्वज्ञानमय उदासीनभावको लिये हुए होता है। यह ध्यान पूर्वकरणादि गुणस्थान-धारी सुनियोंके ही बन सकता है 1 | धर्म्यध्यानके स्वामी अविरतसम्यग्दष्टि, देशसंयमी, प्रमत्त और अप्रमत ऐसे चार गुणस्थानवर्ती जीव कहे गये हैं, जिनमें प्रथम दो गुणस्थान गृहस्थोंसे और शेष दो मुनियोंसे सम्बन्ध रखते हैं, और इस तरह गृहस्थ भी धर्म्यध्यानके अधिकारी हैं। अब देखना यह है कि ध्यान किसको कहते हैं ? तच्चार्थसूत्रादि ग्रंथों में 'एकाग्र चिन्तानिरोषो ध्यानम्' जैसे वाक्योंके द्वारा एकाग्रमें चिन्ताके निरोघको ध्यान कहा है। तत्त्वानुशासन ३४ + तत्त्वा० ५१-५५ तत्त्वा० २२१, २२२
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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