SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म-रहस्य आत्म-शक्तियोंके विकास पर ही अपना आधार रखता है। __इसी दृष्टिको लेकर कर त्व-विषयके अहंकारकी नि:सारताको दूसरे कार्यों पर भी घटित कर लेना चाहिये। भवितव्यताका आश्रय लेनेकी दृष्टिको ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। इससे अधिक उसका यह आशय कदापि नहीं है कि जो कुछ होना है वह स्वयं हो रहेगा ऐसा समझकर सारे पुरुषार्थका त्याग करते हुए विल्कुल निष्क्रिय होकर वैठ जाना । ऐसा आशय लेना जिन-शासनके रहस्यको न समझनेके समान है, बडवत् आचारणके सदृश है और अपनी सारी विकास योजनाओं पर पानी फेर देनेके वराबर है । जिन-शासनमें ऐसे एकान्तके लिये कोई स्थान नहीं हैं। भवितव्यताका ऐसा एकान्त अर्थ ग्रहण करने पर हम अपने भोजनादिकी तय्यारीकी बात तो दूर रही, तय्यार भोजनको उदरस्थ भी नहीं कर सकेंगे--उसके लिये भी इच्छाके साथ हाथ-मुँहके पुरुषार्थकी-प्रयत्नकी जरूरत है। देवयोगसे प्राप्त हुई धनराशिको भी हण करने तथा उसका उपयोग करनेमें प्रवृत्त नहीं हो सकेंगे-उन सबके लिये भी सक्रिय होने तथा हस्त-पादादिकको हिलाकर कुछ प्रयत्ल करनेकी जरूरत पड़ती है। . भगवान् सर्वज्ञके ज्ञानमें जो कार्य जिस समय, जहाँ पर. जिसके द्वारा, जिस प्रकारसे होना झलका है वह उसी
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy